भारत विविधताओं का देश है — यहाँ अनेक धर्म, जातियाँ, भाषाएँ और संस्कृतियाँ सदियों से एक साथ रहती आई हैं। लेकिन इस विविधता के भीतर गहरी असमानत...
हाल के वर्षों में एक अत्यंत दुखद घटना ने पूरे राष्ट्र का ध्यान खींचा — जब किसी व्यक्ति से उसका धर्म पूछकर उसे मारा गया। इस घटना ने न केवल देश में, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी भारी आक्रोश पैदा किया। धर्म के नाम पर हत्या करना किसी भी सभ्य समाज के मूल्यों के विपरीत है, और इस पर प्रतिक्रिया आना भी स्वाभाविक था।
लेकिन यदि हम थोड़ा गहरा विश्लेषण करें, तो पाएंगे कि भारत में जाति पूछकर मारने की घटनाएँ कहीं अधिक व्यापक, पुरानी और घातक हैं — जिनका उल्लेख शायद ही कभी प्रमुखता से होता है।
जातिगत हिंसा का अदृश्य जाल
भारत में दलितों, आदिवासियों और अन्य पिछड़ी जातियों के खिलाफ अत्याचार की घटनाएँ कोई नई बात नहीं हैं। खेतों से लेकर पंचायतों तक, स्कूलों से लेकर अदालतों तक — जातिगत भेदभाव कई बार हिंसा और हत्या का रूप ले लेता है।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के अनुसार हर साल हजारों मामले अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के खिलाफ अत्याचार के दर्ज होते हैं।
जाति पूछकर अपमान करना, मारपीट करना, सामाजिक बहिष्कार करना, यहां तक कि हत्या करना — यह सब आज भी भारत के विभिन्न हिस्सों में एक कड़वी सच्चाई है। लेकिन दुर्भाग्यवश, यह घटनाएँ प्रायः छोटे समाचार कॉलमों में दबकर रह जाती हैं।
कुछ प्रमुख उदाहरण
-
ऊना कांड (2016, गुजरात)
चार दलित युवकों को गौहत्या के झूठे आरोप में बेरहमी से पीटा गया। सार्वजनिक रूप से उन्हें निर्वस्त्र कर लाठियों से मारा गया। वीडियो सामने आने के बाद देशभर में विरोध प्रदर्शन हुए, लेकिन इस घटना ने जातिगत अत्याचार की गहराई को उजागर किया। -
हाथरस कांड (2020, उत्तर प्रदेश)
एक दलित लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ और बाद में उसकी मृत्यु हो गई। आरोपियों का संबंध ऊंची जाति से था। पीड़िता के शव का जबरन अंतिम संस्कार कर दिया गया, जिससे न्याय और मानवाधिकारों पर गंभीर सवाल खड़े हुए। -
रोहित वेमुला आत्महत्या मामला (2016, हैदराबाद विश्वविद्यालय)
एक दलित छात्र रोहित वेमुला ने जातिगत भेदभाव और संस्थागत अपमान के चलते आत्महत्या कर ली। उनकी चिट्ठी ने भारत में जातिगत भेदभाव पर एक बड़ा राष्ट्रीय विमर्श छेड़ दिया। -
भima-कोरेगांव हिंसा (2018, महाराष्ट्र)
दलितों के ऐतिहासिक सम्मान दिवस पर आयोजित कार्यक्रम पर हमला हुआ, जिसमें जातिगत तनाव भड़क उठा।
इन घटनाओं ने यह स्पष्ट किया कि आज भी जाति आधारित हिंसा कोई बीती बात नहीं, बल्कि एक ज्वलंत और मौजूदा सच्चाई है।
दोहरा मापदंड और सामाजिक चेतना
जब धर्म के आधार पर हत्या होती है, तो देशभर में उबाल आ जाता है — टीवी चैनल बहसें करते हैं, आंदोलन होते हैं, अंतरराष्ट्रीय निकाय निंदा करते हैं।
लेकिन जब जाति पूछकर दलितों या पिछड़ी जातियों पर अत्याचार होता है, तो अक्सर समाज की प्रतिक्रिया मौन, बंटा हुआ और कमजोर रहती है।
महत्वपूर्ण प्रश्न:
-
क्या जाति आधारित अन्याय को हमने 'सामान्य' मान लिया है?
-
क्या हमें केवल बड़े शहरों की घटनाओं की चिंता है और ग्रामीण भारत की पीड़ा से हम अनभिज्ञ हैं?
-
क्या जाति को लेकर संवेदना केवल किताबों या नारेबाजी तक सीमित रह गई है?
जब तक हम जाति आधारित हिंसा के खिलाफ उतनी ही संवेदनशीलता, आक्रोश और एकजुटता नहीं दिखाएँगे जितनी धर्म आधारित हिंसा के खिलाफ दिखाते हैं, तब तक हम एक समानता और न्याय आधारित समाज की कल्पना नहीं कर सकते।
भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, जो "विविधता में एकता" के आदर्श पर टिका है। परंतु इसी विविधता के भीतर असमानता, भेदभाव और हिंसा का एक अंधकारमय पक्ष भी छिपा है।
जहाँ धर्म के नाम पर की गई हिंसा तुरंत राष्ट्रीय बहस बनती है, वहीं जाति के नाम पर हो रहे अत्याचार प्रायः हाशिये पर पड़े रहते हैं।
यह लेख इसी विडंबना की पड़ताल करता है — शोध आंकड़ों, संवैधानिक प्रावधानों और ऐतिहासिक उदाहरणों के साथ।
भारत में धार्मिक पहचान के आधार पर हत्या
पिछले एक दशक में कुछ घटनाएँ सामने आईं, जहाँ धर्म पूछकर मारे जाने की घटनाएँ दर्ज हुईं, जैसे कि:
-
अखलाक हत्या कांड (2015, उत्तर प्रदेश): एक अफवाह पर आधारित धार्मिक पहचान के कारण पीट-पीट कर हत्या।
-
झारखंड में तबरेज अंसारी कांड (2019): धार्मिक नारों के लिए मजबूर किया गया और हत्या कर दी गई।
इन घटनाओं ने व्यापक मीडिया कवरेज पाया, समाज के विभिन्न वर्गों में आक्रोश पैदा किया और अंतरराष्ट्रीय निकायों तक आलोचना पहुँची।
जाति आधारित हिंसा: आँकड़े और वास्तविकता
जब हम धर्म आधारित हिंसा की तुलना जाति आधारित हिंसा से करते हैं, तो एक चौंकाने वाला तथ्य सामने आता है:
🔵 राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) 2022 के अनुसार:
-
अनुसूचित जातियों (SCs) के खिलाफ अत्याचार के 50,900 से अधिक मामले दर्ज किए गए।
-
अनुसूचित जनजातियों (STs) के खिलाफ अत्याचार के 10,600 से अधिक मामले सामने आए।
-
इनमें हत्या, बलात्कार, अपहरण, सार्वजनिक अपमान, और सामाजिक बहिष्कार जैसी घटनाएँ शामिल हैं।
🔵 प्रमुख अपराध दर (Per Lakh Population)
-
दलितों के खिलाफ अपराध दर सामान्य जनसंख्या के मुकाबले दोगुनी से अधिक पाई गई।
🔵 अधिकांश मामले ग्रामीण भारत से आते हैं, जहाँ सामाजिक संरचनाएँ अब भी वर्ण व्यवस्था की जड़ता में जकड़ी हुई हैं।
संवैधानिक दृष्टि: क्या हम अपने आदर्शों से भटक रहे हैं?
भारतीय संविधान ने जाति भेदभाव को समाप्त करने के लिए सशक्त प्रावधान किए हैं:
-
अनुच्छेद 15: राज्य किसी नागरिक के साथ केवल धर्म, जाति, लिंग, जन्म स्थान या इनमें से किसी के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा।
-
अनुच्छेद 17: 'अछूत प्रथा' को समाप्त कर दिया गया है; इसके पालन में किसी भी रूप में भेदभाव करना अपराध है।
-
SC/ST (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989: अनुसूचित जातियों और जनजातियों के खिलाफ होने वाले अपराधों के लिए विशेष कानूनी संरक्षण प्रदान करता है।
वास्तविकता:
इन संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद, जातिगत हिंसा की घटनाएँ लगातार जारी हैं, जो हमारे सामाजिक ताने-बाने पर एक गहरा प्रश्नचिह्न लगाती हैं।
जातिगत हिंसा के प्रमुख उदाहरण
वर्ष | घटना | विवरण |
---|---|---|
2016 | ऊना कांड | दलित युवकों को गौहत्या के झूठे आरोप में बुरी तरह पीटा गया। |
2016 | रोहित वेमुला आत्महत्या | जातिगत भेदभाव के कारण दलित छात्र की आत्महत्या। |
2020 | हाथरस कांड | दलित लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार और मौत, प्रशासन की संवेदनहीनता। |
2018 | भीमा-कोरेगांव हिंसा | दलित सभा पर हमला, जातिगत तनाव भड़का। |
सामाजिक आंदोलन: बदलते स्वर
जातिगत अत्याचारों के खिलाफ कई मजबूत आंदोलन उभरे हैं, जैसे:
-
भीम आर्मी आंदोलन (चंद्रशेखर आजाद द्वारा स्थापित)
-
दलित पैंथर (1970 के दशक में महाराष्ट्र में)
-
'जय भीम' आंदोलनों
इन आंदोलनों ने जाति आधारित अन्याय के खिलाफ आवाज को संगठित किया, लेकिन मुख्यधारा में इनकी आवाज अक्सर हाशिए पर धकेल दी जाती है।
धर्म बनाम जाति: सामाजिक प्रतिक्रिया का अंतर
धर्म पूछकर हत्या —
-
राष्ट्रीय स्तर पर कोहराम।
-
राजनीतिक दलों की सक्रियता।
-
मीडिया में बड़े-बड़े डिबेट।
-
अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की निंदा।
जाति पूछकर हत्या —
-
स्थानीय समाचारों तक सीमित।
-
अक्सर पीड़ितों को ही दोषी ठहराया जाता है।
-
न्याय प्रक्रिया में देरी और दबाव।
-
सामाजिक चुप्पी और उदासीनता।
निष्कर्ष: हमें क्या बदलना होगा?
-
जातिगत हिंसा को धर्म आधारित हिंसा जितनी ही गंभीरता से लेना होगा।
-
मीडिया को जातिगत अत्याचारों को भी उसी स्तर पर रिपोर्ट करना होगा।
-
न्यायिक व्यवस्था में दलितों और आदिवासियों के लिए त्वरित न्याय सुनिश्चित करना होगा।
-
शिक्षा और सामाजिक जागरूकता के ज़रिए बचपन से जाति के खिलाफ चेतना पैदा करनी होगी।
याद रखें:
भारत तब ही सच्चा लोकतंत्र कहलाएगा, जब हर नागरिक की पहचान धर्म, जाति, लिंग या भाषा से परे, केवल एक "मानव" के रूप में की जाएगी।
जब तक हर भारतीय को उसकी जाति, धर्म या पहचान से परे केवल एक इंसान के रूप में देखा नहीं जाएगा — तब तक भारत का लोकतंत्र अधूरा रहेगा।