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कहां मरे पड़े हैं हिंदी बचाओ मंच वाले ??

बेचारे हिंदी बचाओ मंच वाले तभी जागते हैं जब भोजपुरी भाषी अपनी भाषा के संरक्षण और संवर्धन के लिए उसे संविधान की आठवीं अनुसूची में दर्ज करने क...

बेचारे हिंदी बचाओ मंच वाले तभी जागते हैं जब भोजपुरी भाषी अपनी भाषा के संरक्षण और संवर्धन के लिए उसे संविधान की आठवीं अनुसूची में दर्ज करने की बात करते हैं।

कलकत्ता से लेकर नागपुर तक के कान खड़े हो जाते हैं। लेकिन वहीं नागपुर वाले भी चुप्पी साध लेते हैं जब बात महाराष्ट्र की सरकार हिंदी को कक्षा एक से पांचवीं तक अनिवार्य करती है और तब उसका पुरजोर विरोध होता है। वहां पक्ष के कुछ नेता और विपक्ष की सारी पार्टियां इस मुहिम का मुखर विरोध करती हैं। 

तब भी नागपुर वाले जो राष्ट्र, राष्ट्रवाद, राष्ट्रीयता, राष्ट्रभाषा और राष्ट्र प्रथम की बात करते हैं चुप रहते है जब महाराष्ट्र में राज ठाकरे वाले मनसे के कुछ गुंडे हिंदी बोलने पर उत्तर भारतीयों की पिटाई करते हैं, बेइज्जत करते हैं, सरेआम अपमान करते हैं तब इनको सांप सूंघ जाता है। चुप होकर कहीं दुबक लेते हैं और हिंदी भाषियों की पिटाई का मूकदर्शक बने रहते है। ऐसी हालत में  मुझे भारत के लगभग 1074 विश्वविद्यालयों ( सरकारी और निजी) के  हिंदी विभाग के उन हिंदी बचाओ मंच के अभियान से जुड़े प्राध्यापकों की याद आती है वे कहां खड़े हैं? उनकी चुप्पी खलती है वे क्यों केवल भोजपुरी के विरोध में ही ये सामने आते हैं? 

तमिलनाडु ने तो हिंदी थोपने की प्रक्रिया को "भाषाई युद्ध" ही नाम दे दिया है। वहां के मुख्यमंत्री स्टालिन कहते है कि "यह राज्य के भाषाई और सांस्कृतिक स्वायत्तता का उल्लंघन है।" फिर ये हिंदी बचाओ मंच वाले कहां है? आंदोलन क्यों नहीं करते? कभी जंतर मंतर पर आ कर इस मुद्दे को क्यों नहीं उठाते? अब हिंदी, हिंदू और हिंदुस्तान कहां विलुप्त हो जाता है ?

भोजपुरी के विरुद्ध में हिंदी बचाओ मंच जो आठ सौ ज्ञानियों ने केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय में जो अभ्यावेदन दिया कि भोजपुरी को सांविधानिक मान्यता ना दी जाए वे कम से कम तमिलनाडु पर कुछ क्रांति करते, महाराष्ट्र में हिंदी के खिलाफ चल रहा है उसपर कुछ कहते। प्रो. अमरनाथ कहां दुबक गए?  क्या हो गया उन्हें? राज ठाकरे से निपट लेते या फिर स्टालिन से निपट लेते। 

क्या अब क्रांति नहीं होगी? मैं तो पूरे हिंदी बचाओ मंच वालों से कहता हूं जाओ थोड़ा ठाकरे बंधुओं से, थोड़ा सुप्रिया सुले से और थोड़ा विजय वडेट्टीवार से निपट लो। सरकार के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस की बात देखें कितनी  दोहरी बात कहते हैं " मराठी भाषा पर कोई समझौता नहीं किया जा सकता। इसे सभी को सीखना चाहिए, लेकिन अतिरिक्त भाषा सीखना व्यक्तिगत पसंद है। मराठी को चुनौती बर्दाश्त नहीं है।"

अब देखिए इस कथन को, सरकार इनकी फिर किसे धमकी दे रहे हैं? सरकार ही तो हिंदी को नई शिक्षा नीति, 2020 के अनुशंसा के अनुरूप हिंदी को एलिमेंट्री लेवल पर लागू करना चाहती है और फिर सरकार मराठी भाषा पर चुनौती का पुरजोर विरोध कर रही है। कमाल की बात है।

हम उत्तर भारतीयों को जबरदस्ती  मातृभाषा के रूप हिंदी पढ़ाया बताया जाता है और हम पढ़ते भी है खड़ी बोली को अपनी मातृभाषा। कहते भी है। कुछ तो ऐसे लोग है जिन्हें अपनी मातृभाषा याद भी नहीं। जबकि रोज उसी भाषा में संवाद करते हैं पर जैसे आप पूछते है कि आपकी मातृभाषा क्या है वे तपाक से बोलेंगे हिंदी। यह है भाषाई कॉलोनी का परिफलन।

हिंदी बचाओ मंच वालों यदि तुम तक मेरी बात पहुंच रही है तो जाओ तमिलनाडु, जाओ कर्नाटक, आंध्रा प्रदेश, केरल, असम या फिर महाराष्ट्र तुम्हारी औकात का पता चल जाएगा।

भोजपुरी से ही केवल बैर है। सारी क्रांति भोजपुरी के ख़िलाफ़ होगी। याद रखना भोजपुरी वाले भी इतना कमजोर नहीं है। बराबर का जवाब मिलेगा। 

- संतोष पटेल