श्री दिनाभाना के बारे में बताते समय मान्यवर कांशीराम साहब ने विस्तार से अपने इस सफर को बताया है जो कि श्री आर आर श्यान जी की किताब में लिखा ...
" Ordinance Factory पूणा में, 1957 से दो छुटियाँ , एक बाबा साहिब डॉ. आंबेडकर जी के जन्म दिन की तथा दूसरी बुद्धा जयंती के नाम से मनाई जाती थीं, परन्तु ब्राह्मणों ने दोनों ही छुटियाँ ख़त्म करके एक तिलक जयंती तथा दूसरी दीवाली की छुट्टियो में इसे बदल दी। उस समय ओर्डीनैंस फेक्ट्री में 22000 कर्मचारियों में से 100 मेम्बरी कार्यकारणी कमेटी चुनी जाती थी। उस समय फेक्ट्री में 42 महार और 6 भंगी कर्मचारी भी काम करते थे , और बाकि ज्यादातर उच्च जाति के ही कर्मचारी ही थे।
श्री दिनाभाना, भंगी, राजस्थान का रहने वाले थे, वह संस्थान मे भंगी का गन्दा काम छोड़ना चाहता था। उसको मेरे साथ लगाया गया और मैंने उसको हिंदी तथा अंग्रेजी सिखाकर लैबोरटरी ( Lab .) की देखभाल करने वाला बना दिया। इस कारण वह चौथे दर्जे का कर्मचारी बन गया और साथ में कर्मचारियों का लीडर नेता बन गया और उसे कार्यकारणी कमेटी का मेम्बर भी चुन लिया गया। उसने मेरे कहने पर, बाबा साहिब के जन्म दिवस तथा बुद्ध जयंती की छुटिओं को बदले जाने पर एतराज ( Objection ) किया तथा मैंने उसके माध्यम से कार्यकारणी कमेटी में वो छुटिओं को बदलवाने के लिए 'एजेंडा ' रखवा दिया। इस कारण प्रशासन ने 42 महारों और 6 भंगी कर्मचारी को यह जानने के लिए बुलाया कि, " क्या वे सब दीना भाना के साथ सहमत हैं ? "
लेकिन उन सभी ने अपनी सहमती से इंकार कर दिया और यह भी लिख कर दे दिया कि वह लोग छुट्टियां नहीं चाहते बल्कि यह कहा कि " हमें नौकरी की ही जरूरत है , हमें तो दीनाभाना ने ही उकसाया था "।
इस कारण से दिनाभाना को प्रशासन की तरफ से एक नोटिस जारी हुआ कि आपको आपके मेम्बरों का समर्थन प्राप्त नहीं हैं, इस लिए आपको कमेटी में से निकाला जाता है तथा एक सप्ताह के बाद आपकी नौकरी भी ख़त्म कर दी जायेगी। इस तरह दीना भाना को कार्यकारणी कमेटी में से चुनाव को रदद करने का नोटिस भी जारी कर दिया। इस सम्बन्ध में मैं ( कांशी राम ) अपने एक दोस्त वकील को मिला जिसने बताया कि यह नोटिस गलत है क्योंकि मतदाताओ को किसी भी चुने हुए मेम्बर को वापस बुलाने का कानूनी अधिकार नहीं है तथा वे किसी मेम्बर को निकाल भी नहीं सकते है इस तरह दिनाभाना ने मेरी मदद से कार्यकारणी कमेटी को नोटिस भेजा कि वे उसकी मेम्बरशिप को इस तरह रदद नहीं कर सकते व नया चुनाव ना किया जाये। इस नोटिस की नकलें कमेटी के चेयरमैन और प्रशासन के दुसरे अधिकारियो को भी भेजी गईं।
प्रबंधक अफसर को दीना भाना को मुअतल ( suspend ) करने के लिए कहा गया , परन्तु वह ऐसा नहीं कर पाया। जब चुनाव नहीं हुआ तो 42 महार और 6 भंगी मेरे ( कांशी राम ) साथ आ मिले। लेकिन जब बाद में दिनाभाना को मुअतल ( suspend ) कर दिया गया तो वह फिर से भाग खड़े हुए। अपने वकील की सलाह से मैं ( कांशी राम ) दिनाभाना को अदालत में ले गया और केस दर्ज करवा दिया। किन्तु संस्थान के कर्मचारी महारों और भंगियों के इस तरह के वर्ताब से मेरे दिल में उनके प्रति नफरत हो गई। उधर ब्राह्मणों की नफरत भी मेरे सिर पर थोप दी गई। वो ब्राह्मण कहने लगे कि कांशी राम को ठीक करना है , क्योंकि वह ही दिनाभाना को ' उकसा ' ( भड़का ) रहा है।
ब्राह्मणों ने दिनाभाना की पत्नी को बुला कर कहा कि , वह अपने पति को मुआफी मांगने के लिए मनाए, परन्तु उसकी पत्नी ने साफ इंकार कर दिया क्योंकि मैंने पहले ही दिनाभाना की पत्नी को हर महीने के पहले दिन दिनाभाना की बनती तनखाह के बराबर पैसे देने का भरोसा दिया हुआ था तथा यह भी बताया हुआ था कि दिनाभाना का मुअतली भत्ता उसके साथ बोनस होगा।
एक दिन जब हम अदालत में इकट्ठे बैठे थे और हम दोनों ( दीना भाना और मैं ) एक दुसरे से पूछने लगे कि , डॉ. आंबेडकर और महात्मा बुद्ध कौन थे? तथा उन्होंने हमारे लिए क्या करा है ? परन्तु, हम दोनों उनके बारे में कुछ खास नहीं जानते थे। उसी समय श्री डी. के . खापर्डे भी वहाँ आ गए और पहले तो वह मुझे देख कर डर गया क्योंकि में संस्थान के महारों को उनकी हरकतों की बजह से गालियाँ निकलता था लेकिन इस बार मैंने खापर्डे को कुछ नहीं कहा बल्कि यह पूछा कि वह अदालत में किस लिए आया है ? तो उसने जवाब दिया कि अदालत में अपना केस ( दीना भाना वाला ) सुनने को आया हूँ, तब मैंने उससे बाबा साहिब डॉ. आंबेडकर के बारे में पूछा, तो उसने बताया कि बाबा साहिब एक बहुत महान व्यक्ति थे और उन्होंने हमारे समाज के लिए बहुत कुछ करा है तथा उन्होंने बहुत सारी पुस्तकें भी लिखी हैं। तब बाद में खापर्डे ने मुझे एक पुस्तक ला कर दी जिसका नाम " Annihilation of Castes " ( जात - पात का बीजनाश ) था। इस किताब में मैंने पढ़ा कि " किस तरह पेशवा के राज के समय महारों के गलों में मटके टांगे हुए होते थे और कमर के पीछे झाड़ू बंधे हुए होते थे ताकि बह अपने पैरों के निशान मिटाते जाएँ तथा अपना थूक भी मटके में ही फेंकें।
यह पुस्तक मैंने 7 बार पढ़ी और मैं बाबा साहिब के आन्दोलन को पूरी तरह समझ गया। इसे पढ़कर मैंने यहाँ महसूस किया कि " यदि तमन्ना सच्ची है तो रास्ते निकल आते हैं और यदि तमन्ना सच्ची नहीं है तो हजारों बहाने निकाल आते हैं।
कुछ समय के बाद जब प्रबन्धको / ब्राह्मणों को दिनाभाना के केस में मेरी मदद देने का पक्का पता चल गया, तो उन्होंने मुझे बुलाया और निर्देशक ( Director ) ने कहा कि " डॉ. आंबेडकर एक बदमाश थे क्योंकि उसने हमारे धर्म को बहुत नुकसान पहुँचाया है तो मैंने निर्देशक के इन शब्दों को नकारते हुए कहा कि मुझे आपकी Ph .D . की डिग्री की जरूरत नहीं है बल्कि मैं अपनी B .Sc . की डिग्री को भी छोड़ सकता हूँ, परन्तु मे बाबा साहिब जी के विरुद्ध कुछ भी नहीं सुनना चाहता हूँ। इस तरह मैं, इन्साफ के लिए लड़ा और बाबा साहिब के जन्म दिन 14 अप्रैल की छुटी का ऐलान करवाया परन्तु प्रबंधकों ने फेक्ट्री में उस दिन का ओवर टाइम ( over Time ) का ऐलान कर दिया और इन 42 महार तथा 6 भंगी कर्मचारियो ने भी वँहा ओवरटाइम किया।
अदालत की तरफ से हमारे दोनों केसों का फैसला दिनाभाना के पक्ष में हुआ तथा महार कलोनी में इस कारण ख़ुशी की बजह से बहुत जलसे हुए और दादा साहिब गायकवाड जी ने उन जलसों के प्रबंध में बहुत मदद की। इसके कारण फैक्ट्री के निर्देशक की बदली हो गई तथा उप - निर्देशक को नौकरी से निकाल दिया गया। जिस का पूना में हमारे लोगों के ऊपर बहुत प्रभाव पड़ा। महार लोगों को बाबा साहिब की विचारधारा का अच्छी तरह से पता था लेकिन वह करते कुछ नहीं थे परन्तु अब वह मुझे , " उस्तादों का उस्ताद मान रहे हैं"।
इस तरह बाबा साहिब का मिशन पीछे चला गया और अपने पीछे चार तरह के अम्बेडकरवादी छोड़ गया ::---
(1 ) हरामी अंबेडकरवादी ( Bastard Ambedkarites )
(2 ) हरिजन अंबेडकरवादी ( Harijan Ambedkarites )
( 3 ) दो-चित्ते अंबेडकरवादी ( Double Minded Ambedkarits)
( 4 ) भोले - भाले अंबेडकरवादी ( Gullible Masses )
( 1 ) हरामी अंबेडकरवादी ( Bastard Ambedkarites ) ::-- यह वे लोग थे जिन को बाबा सहिबं ने ट्रेंड किया और वह, बाबा साहिब के जीवित रहते तो उनके साथ चलते रहे परन्तु उनके परिनिर्वाण के बाद वह आंबेडकरवाद के दलाल बनकर मिशन को धोखा देने लग गए। वह है भंडारे और काम्बले आदि , और वे पक्के अम्बेडकरवादी अब गाँधी के नाम पर अंबेडकर मिशन चला रहे हैं। " जस्टिस भोले , घनश्याम और तलवारकर " जो अंबेडकर मिशन सोसाइटी चलाते थे , अब वे सीटों के लिए इंदिरा गाँधी के पैर चाटते हैं। बाबा साहिब ने जिस कारवां को बड़ी मुश्किल से आगे चलाया था परन्तु इन्हीं लोगों ने बाबा साहिब के मिशन को गांधीवाद के पैरों में फैंक दिया।
( 2 ) हरिजन अंबेडकरवादी ( Harijan Ambedkarites ) ::-- श्री भंडारे जो एक समय बाबा सहिब के मिशन के सिपाही थे, को जब कांग्रेस ने गवर्नर बना दिया तो और लोग कहने लगे कि उन्होंने तो छक्का ( Sixer ) मारा है जबकि वह इंदिरा गाँधी के पैर के तलवे चाटने वाले बन गए थे। श्री उके (Uke ) और डॉ. लांगडे , जिन्होंने सिधारथ वेलफेयर क्लब बनाई थी , को बापू भवन से मिला दिया। श्री डोंगरे ने कहा कि बाबा साहिब का मिशन अब चल नहीं सकता और वो सोच रहे हैं कि किस तरह से संजय गाँधी के नजदीक जाया जा सके और वे बाबा - बाबा चिल्लाते हुए , बापू भवन पहुँच गए। इस लिए यह दो तरह के लोग मिशन के वफादार नहीं हो सके।
( 3 ) दो-चित्ते अंबेडकरवादी ( Double Minded Ambedkarites ) ::-- असल में यह लोग ही बामसेफ का आधार हैं। यह लोग यदि अम्बेडकरवाद चलता है तो कुछ देना चाहते हैं। यह कुछ तो देने के लिए तैयार हैं , लेकिन सब कुछ नहीं। यदि यह सब कुछ देने को तयार होते तो बाबा साहिब के मिशन को यह बुरे दिन देखने को ना मिलते। यह लोग केंद्र तथा राज्यों के सरकारी कर्मचारी हैं।
( 4 ) भोले - भाले अंबेडकरवादी ( Gullible Masses ) ::-- यह आम लोग हैं , जो आगे चल सकते हैं, यदि कोई इनको साथ लेकर चलने वाला हो।
आंबेडकरवाद सब कुछ देने के वगैर चल नहीं सकता। वह लोग जो मिशन के ठेकेदार थे, मिशन को आगे ले जाने में फेल हो गए हैं , इस लिए यह लोग उनके साथ नहीं लगे। दूसरी संसारक यंग ( Second World War ) के समय " चर्चिल "( Charchil ) ने कहा कि " इंगलैंड को खून (भाव, सब कुछ ) चाहिए " इसी तरह श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने भी इन्हीं शर्तों के ऊपर ( भाव , सब कुछ देने वाले ) पाँच प्यारे चुने थे। उन्होंने अपनी शहीदी से सब कुछ कुर्बान कर दीया।
1947 को आजादी के बाद ब्राह्मन, बनिया और बड़ा जागीरदार शासक बन गए हैं , जो अपने हित्तों के लिए हमें पिछड़े ही रखना चाहते हैं इस लिए वो हमारे दुश्मन बने हुए हैं। इस लिए उनके ऐसे पक्के ढांचे / व्यवस्था का मुकाबला करना इन दो - चित्ते अंबेडकरवादियों का कुछ त्याग करना काफी नहीं था। इस तरह के हालातों ने मुझे ( कांशी राम ) सब कुछ त्याग करने के लिए तैयार कर दिया और इस तरह यह दो-चित्ते अंबेडकरवादी मेरी तरफ खींचे गए , क्योंकि बह भी कुछ देना चाहते थे।
1950 में ओले बाबु ( ole babu ) वकील, जो बाँके महार थे, उसका नागपुर में ‘ थोरे गुरु ( Thore Guru )’ जो बोना महार थे , ने विरोध किया और वह आम तौर पर कहता था कि , ‘ अंबिया ‘ को देख लेंगे , यहाँ तक कि , ‘ बोरकर (Borkar )’ ने बाबा साहिब को हराया था। ‘ श्री खोब्रागडे ‘ की शह से लोग पर्चे बाँट रहे थे जिन पर लिखा था, " नागपुरी गुंडों से साबधान रहो ? "। पुनरी महार के उपर नाग पुरियों को कैसे बिठा सकते हैं ? और वे पर्चे आर . पी. आई . ( RPI ) के तीन ग्रुप , काम्बले , खापर्डे और गवई ग्रुपों की तरफ से निकाले गए थे क्यों कि ‘ मधु परियार ( Madhu Pariyar )’ जो पुनरी महार था , को सेक्टरी जनरल ( Secretary General ) बनाया गया था।
इस प्रकार मान्यवर साहब महाराष्ट्र से सीधा नई दिल्ली आ गए, उसके बाद जमीन से देश की तीसरे नम्बर की राष्टीय पार्टी बनने का सफर सभी के सामने है।
साभार :: बाबा साहिब डॉ. अम्बेडकर जी का मिशन ( साहब श्री कांशी राम जी की नजर में ) में से By : R. R. Syan 3.2.1981
- विकास कुमार जाटव