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शिक्षा या व्यापार: निजी स्कूलों में किताबों की लूट और एनसीईआरटी की उपेक्षा

भारत में शिक्षा को एक मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता प्राप्त है। लेकिन जिस प्रणाली को समाज में समानता और विकास का माध्यम बनना चाहिए , वह आज...

भारत में शिक्षा को एक मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता प्राप्त है। लेकिन जिस प्रणाली को समाज में समानता और विकास का माध्यम बनना चाहिए, वह आज कुछ निजी संस्थानों के लिए लाभ का माध्यम बन चुकी है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है – किताबों की कीमतों में भारी असमानता

केंद्रीय विद्यालय बनाम निजी स्कूल

केंद्रीय विद्यालय संगठन (KVS) द्वारा संचालित स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता के साथ-साथ एनसीईआरटी द्वारा प्रकाशित पुस्तकें उपयोग में लाई जाती हैं। ये किताबें न केवल सस्ती होती हैं, बल्कि राष्ट्रीय पाठ्यचर्या के अनुसार तैयार की गई होती हैं। दूसरी ओर, निजी स्कूलों में स्थिति बिल्कुल अलग है।

📊 किताबों की कीमतों की तुलना:

नर्सरी से लेकर कक्षा 5 तक, केंद्रीय विद्यालयों में एनसीईआरटी की किताबों की कुल कीमत लगभग ₹600 से ₹700 के बीच होती है, जबकि निजी स्कूलों में यही किताबें ₹2500 से ₹4500 तक में बेची जाती हैं।

कक्षा 6 से 8 के छात्रों के लिए केंद्रीय विद्यालयों में किताबों की लागत केवल ₹800 से ₹900 होती है, लेकिन निजी स्कूलों में अभिभावकों को ₹4500 से ₹9000 तक खर्च करने पड़ते हैं।

कक्षा 9 और 10 में पढ़ने वाले बच्चों के लिए एनसीईआरटी की किताबें ₹850 से ₹1050 में उपलब्ध हैं, वहीं निजी स्कूलों में इन कक्षाओं की किताबों की कीमत ₹5000 से ₹9500 तक पहुँच जाती है।

कक्षा 11 और 12 (विज्ञान वर्ग) के छात्रों के लिए एनसीईआरटी की किताबों की कीमत ₹1100 से ₹1250 के बीच होती है, जबकि निजी स्कूलों में इसकी कीमत ₹6000 से ₹10000 तक हो सकती है।

यह अंतर स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि निजी स्कूलों में किताबों की कीमतें 5 से 10 गुना तक अधिक हैं, जो सीधे तौर पर अभिभावकों की जेब पर भारी पड़ती हैं।

💰 किताबों में कमीशन का खेल

निजी स्कूलों की महंगी किताबों की एक प्रमुख वजह है कमीशन आधारित प्रकाशन प्रणाली। अधिकतर स्कूल कुछ खास पब्लिशर्स से किताबें मंगवाते हैं और उसी की दुकान से अभिभावकों को खरीदने के लिए बाध्य करते हैं। इसके पीछे 15% से 40% तक का कमीशन होता है जो स्कूल प्रबंधकों को मिलता है।

  • स्कूल किताबों को "अनिवार्य" घोषित करते हैं।
  • किताबों की सूची केवल चुनिंदा दुकानों तक सीमित होती है।
  • अभिभावकों को किताबें किसी और स्थान से खरीदने की अनुमति नहीं दी जाती।

🎒 बच्चों पर बढ़ता बोझ

केवल आर्थिक बोझ ही नहीं, बच्चों पर शैक्षणिक बोझ भी बढ़ता है:

  • एक ही विषय के लिए 2-3 किताबें दी जाती हैं।
  • एनसीईआरटी की बजाय प्राइवेट पब्लिशर की कठिन और भारी-भरकम किताबें होती हैं।
  • इससे बच्चों में तनाव, उलझन और असमय पढ़ाई से नफरत जैसी समस्याएं उत्पन्न होती हैं।

📘 एनसीईआरटी की गुणवत्ता को नजरअंदाज क्यों?

एनसीईआरटी की किताबें:

  • विशेषज्ञों द्वारा तैयार की जाती हैं।
  • सीबीएसई द्वारा अनिवार्य रूप से मान्यता प्राप्त हैं।
  • सहज भाषा, स्पष्ट चित्रण और वैचारिक स्पष्टता पर आधारित हैं।

फिर भी निजी स्कूल इन किताबों को न अपनाकर, महंगे प्रकाशनों की किताबें क्यों थोप रहे हैं? जवाब सीधा है – व्यावसायिक लाभ

⚖️ क्या कहती है सरकार?

हालांकि शिक्षा विभाग और एनसीईआरटी कई बार निर्देश जारी कर चुके हैं कि:

  • स्कूल किताबों के लिए किसी एक विक्रेता को बाध्य न करें।
  • एनसीईआरटी की किताबें प्राथमिकता से उपयोग में लाई जाएं।

फिर भी इन निर्देशों का पालन नहीं हो रहा है क्योंकि उनके उल्लंघन पर कोई कठोर कार्रवाई नहीं होती

📣 समाधान क्या हो?

1.    एनसीईआरटी किताबों को अनिवार्य बनाया जाए – खासकर सीबीएसई से मान्यता प्राप्त स्कूलों में।

2.    स्कूलों को किताबों की दुकानों से कमीशन लेने पर रोक लगाई जाए।

3.    अभिभावकों को यह स्वतंत्रता हो कि वे किताबें किसी भी स्रोत से खरीद सकें।

4.    राज्य शिक्षा बोर्ड और जिला शिक्षा अधिकारी स्कूलों की निगरानी करें।

5.    जन जागरूकता अभियान चलाया जाए ताकि अभिभावक अपने अधिकारों को समझें।


निष्कर्ष

शिक्षा को व्यापार में बदलना न सिर्फ असंवेदनशील है, बल्कि संविधान के मूलभूत सिद्धांतों के खिलाफ भी है। यदि अब भी ठोस कदम नहीं उठाए गए, तो शिक्षा केवल उन लोगों की पहुँच में रह जाएगी जो इसकी भारी कीमत चुका सकते हैं। ज़रूरत है कि समाज, सरकार और शिक्षा संस्थान मिलकर इस शोषण को खत्म करें और शिक्षा को फिर से सेवा का माध्यम बनाएंव्यापार का नहीं